मूलभूत मसले और देश का पर्व

  लोकतंत्र का पर्व शुरू हो चला है और अब तो मतदान भी शुरू हो चुके हैं। देशभर में तैयारियां जोरों शोरों से चल रही हैं। वैसे तो देश में होने वाले अन्य पर्व जैसे कि गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, दिवाली, ईद, होली, रक्षाबंधन आदि जो पर्व मनाए जाते हैं। उनकी भी तैयारियां देशभर में कई दिन पहले से ही शुरू हो जाती हैं और ये पर्व देशभर की जनता के लिए हर्षोल्लास के दिन लाते हैं। इन पर्वों में पूरे देश की जनता तैयारी में जुटती है लेकिन जो लोकतंत्र का पर्व होता है- चुनाव।  इसमें तो सिर्फ राजनीतिक पार्टियां ही तैयारी करती हैं। अन्य पर्वों में तो सभी खुशियां मनाते हैं। लेकिन जो लोकतंत्र का पर्व है- चुनाव यह किसी के लिए डर बन कर आता है तो किसी के लिए कुछ और अधिक हासिल करने का मौका लाता है। डर उनके लिए जो सत्ता में काबिज होते हैं। वह भले ही चुनावी रैलियों, अपने भाषणों और प्रेस कॉन्फ्रेंस या किसी बैठक के दौरान यह कह रहे हों कि हम फिर से सत्ता में बहुमत से आएंगे। लेकिन अंदर से उनके मन में सत्ता खोने का डर या फिर बहुमत खोने का डर जरूर बना रहता है। वहीं विपक्षी दलों के पास पिछली बार से कुछ अधिक सीटें पाने की उम्मीदें बनी रहती हैं। क्योंकि प्रकृति का भी नियम है कि जिनके पास होने को कुछ नहीं होता या खोने को बहुत कम होता है। उन्हें सब कुछ पाने की उम्मीद या कुछ ज्यादा पाने की उम्मीद अधिक होती है और पाने के मौके भी अधिक होते हैं।

 बहरहाल विपक्षी दलों सहित सत्ता में काबिज पार्टियों ने अपने चुनावी मुद्दे, जनता को अपनी ओर रिझाने के लिए कई चुनावी वादे और बहुत सी योजनाएं लागू करने की लिस्ट जारी कर दी है। किसी पार्टी ने अपनी लिस्ट में इंगित किया कि वह जब इस बार आएंगे तो भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बनाएंगे तो किसी पार्टी ने यह इंगित किया कि हम आएंगे तो न्याय दिलाएंगे, नौकरियां देंगे, पुरानी योजनाओं को बहाल करेंगे आदि- आदि। लेकिन कभी कोई पार्टी अपनी योजनाओं और लिस्ट में यह इंगित नहीं करती कि हम गरीबी को एकदम से खत्म कर देंगे, बेरोजगारी को हमेशा के लिए मिटा देंगे। कभी कोई पार्टी या नेता यह नहीं कहता कि हम देश के किसी व्यक्ति / नागरिक को खाली पेट सोने पर मजबूर नहीं होने देंगे और ना ही किसी विद्यार्थी, मजदूर, किसान आदि को कभी भी आत्महत्या करने पर मजबूर होने नहीं देंगे।

 बताते चलें की धरातल पर प्रशासन व्यवस्था इतनी खराब है कि कभी भी प्रत्येक देश के गरीब व्यक्ति / समाज को न्याय नहीं मिलता है। आजादी के बाद भी उनका शोषण हो रहा है और न्यायालय की व्यवस्था तो इतनी खराब है कि मुकदमों में लोगों की पीढ़ियां निकल जा रही हैं। ऐसे में किसी नेता या पार्टी से न्याय की उम्मीद रखना अपनी मंसाओं का कत्ल करने जैसा है और कागजों एवं दस्तावेजों में भले ही देश विश्व विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाए। लेकिन देश के प्रत्येक व्यक्ति की थाली में दो वक्त की रोटी आ जाएगी ऐसी उम्मीद भी किसी पार्टी या नेता से रखना अपने सपनों का मर्दन करने जैसा है। फिलहाल रोटी का मसला तो पैदा होते ही जहन में आ जाता है। लेकिन उसके बाद शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय पाना इतना महंगा हो गया है कि मानो इन्हीं के शुल्क से ही मुल्क चल रहा हो।

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