अभी मर रहे हैं ताकि बुढ़ापे में ठीक से मर सकें -- - - ठीक ऐसा ही जीवन जीने के लिए मजबूर हैं देश के वे लोग जो बेरोजगार हैं या तो पूरी तरह से बेरोजगार है। हाल ही में आई रिपोर्ट --- इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन ( ILO ) और इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट ( IHD ) की मिली जुली एक रिपोर्ट में कुछ इसी प्रकार का खुलासा हुआ है। इस रिपोर्ट में स्पष्ट है कि हर 100 बेरोजगारों में से 83 युवा पढ़े-लिखे नौजवान है। साल 2000 में युवा बेरोजगार 35.2 प्रतिशत थे, तो वही 2022 में यह बढ़कर 65.7% हो गए हैं। आज के समय में विकसित भारत के लक्ष्य को साधते हुए पिछली सरकारों से ज्यादा विकास करने का दावा करती सरकार के आंकड़ों को इस बढ़ती बेरोजगारी की यह रिपोर्ट सरकार के दावों को जुमला साबित करती है। इस रिपोर्ट को भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन ने मार्च के अंतिम सप्ताह में अपने हाथों से जारी की है। जिसमें स्पष्ट है कि पढ़े लिखे होने के बावजूद भी 62.2 प्रतिशत लड़के और 76.7 प्रतिशत लड़कियां बेरोजगार हैं। इसका एक कारण कोरोना महामारी का आना भी था।
लेकिन अब देश उससे उभर चुका है। देश में बाकी अन्य काम भी हो रहे हैं, अगर कुछ नहीं हो रहा है तो वह है सिर्फ भर्तियां। विश्व में 59.8 प्रतिशत युवा काम की तलाश में भटक रहे हैं तो वहीं भारत की बात करें तो 55.2% भारतीय युवा काम की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। यह हम नहीं कह रहे हैं बल्कि ILO - IHD की जो रिपोर्ट जारी हुई है वह कह रही है। हाल ही में उत्तर प्रदेश और राजस्थान की घटनाएं यह बताती हैं कि सरकारें भर्तियां / नौकरियां तो लाती हैं। लेकिन पेपर लीक हो जाने के कारण भर्तियां सफल नहीं हो पाती हैं। इसमें यह कहना गलत ना होगा कि पेपर लीक में सरकारों का ही हाथ है। क्योंकि वह नौकरियां देना ही नहीं चाहते हैं। इस बात का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि पूरे राज्य और देश में जब चुनाव होते हैं तो सुरक्षा के इतने कड़े इंतजाम होते हैं कि बिना किसी बाधा के मतदान सफलतापूर्वक संपन्न हो जाते हैं। जिनमें करोड़ों की संख्या में मतदाता शामिल होते हैं। लेकिन वहीं नौकरी की बात करें तो महज कुछ हजार भर्तियों में कुछ लाख अभ्यर्थी परीक्षा में शामिल होते हैं और सिस्टम की लापरवाही के कारण पेपर लीक हो जाते हैं। जबकि अगर आप अभ्यर्थियों की संख्या की तुलना मतदाताओं की संख्या से करें तो इसका एक चौथाई भी नहीं होगा यानी कि दोनों की संख्या में जमीन आसमान का अंतर होगा फिर भी सरकारें सफलतापूर्वक परीक्षा संपन्न नहीं कर पाती। जिससे साफ जाहिर होता है कि वे नौकरी देना ही नहीं चाहते हैं। यूपी में पुलिस कांस्टेबल भर्ती में कुल 60 हजार + सीटें भरी जानी थी जिसकी परीक्षा में 40 लाख अभ्यर्थी शामिल हुए थे। लेकिन पेपर लीक हो गया और राजस्थान में रीट की भर्ती में 3100 सीटों के लिए 16 लाख अभ्यर्थी शामिल हुए थे। लेकिन वहां भी पेपर लीक हो जाने के कारण भर्तियां असफल रहीं। इन परीक्षाओं में शामिल होने वाली संख्या पर अगर आप एक बार नजर डालेंगे तो साफ जाहिर हो जाएगा कि देश में किस कदर बेरोजगारी है। ये आंकड़ा तो सिर्फ देश के दो राज्यों का ही है।
अब बात करते हैं सरकार के योजनाओं की --- देश में अमीर और गरीब के बीच तेजी से बढ़ती खाई जिसका कारण सरकार की नाकाम या पंगु योजनाएं भी हैं। सरकार की तमाम योजनाओं में एक योजना है। कौशल विकास योजना जिसे राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन और राष्ट्रीय नीति भी कहते हैं। जिसकी शुरुआत जुलाई 2015 में हुई थी। इसके केंद्रीय कौशल विकास राज्य मंत्री आर के सिंह ने राज्यसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए कहा था कि इस योजना के अंतर्गत 16 लाख 61 हजार युवाओं को रोजगार प्रदान किया गया और इसका मिशन एक करोड़ युवाओं को तकनीकी शिक्षा की ट्रेनिंग देना था। लेकिन इसके तहत अभी तक 1.4 करोड़ युवाओं को ट्रेनिंग दी जा चुकी है। इस योजना के अंतर्गत तकनीकि की शिक्षा ले रहे कुछ युवाओं से बात करने पर हमें यह पता चला कि इस योजना की धरातल पर बहुत ही दयनीय स्थिति है। यूपी के रायबरेली जिले के शिवगढ़ ब्लॉक मानपुर निवासी 20 वर्षीय रामानुज जो स्नातक करने के लिए लखनऊ गए हुए हैं। वह बताते हैं कि टेढ़ी पुलिया सीतापुर रोड पर लखनऊ में एक कौशल विकास योजना का केंद्र है। रामानुज ने इस केंद्र में प्रशिक्षण लिया है। वह आगे बताते हैं कि वहां पर इलेक्ट्रिशियन, मोबाइल रिपेयरिंग और कंप्यूटर की बेसिक शिक्षा देने समेत लगभग 20 से 30 तरह की तकनीकि पहलुओं की शिक्षा दी जाती है, जो की बिल्कुल मुफ्त है। वह आगे बताते हुए कहते हैं कि वहां पर प्रशिक्षण ले रहे युवाओं को नौकरी भी दिलाई जाती है यानी की प्लेसमेंट भी कराया जाता है। केंद्र में रहने और खाने की भी फ्री में व्यवस्था है। तब तो सरकार का यह एक सराहनीय कदम माना जाना चाहिए। लेकिन जब रामानुज यह बताते हैं कि जब 6 माह से 1 साल तक का प्रशिक्षण देकर युवाओं को नौकरी दिलाई जाती है तो उस नौकरी से मिलने वाला वेतन इतना कम होता है कि सारा पैसा रहने और खाने में ही खर्च हो जाता है।
रामानुज के साथी सर्वजीत बताते हैं कि हम दोनों के साथ-साथ कई सैकड़ो हमारे अन्य सहपाठी हैं जिन्हें नौकरी दी गई, वह दिल्ली, नोएडा, हरियाणा और पंजाब जैसे बड़े राज्यों में दी गई थी। लेकिन जो वेतन होता था वह सिर्फ 8 से 10 हजार के बीच ही होता था। अब इतने बड़े और महंगे शहरों में 8 से 10 हजार रुपए तो रहने और खाने को ही मुश्किल से हो पाते हैं। अगर हम इन शहरों में बीमार हो जाते तो हमें घर से पैसा मांगना पड़ता था। जिस कारण सर्वजीत और रामानुज समेत सैकड़ो युवाओं ने वह नौकरियां छोड़ दी और अपने-अपने घर चले गए। अब सवाल यह उठता है कि ऐसी योजना का क्या फायदा जो युवाओं को प्रशिक्षण के बाद भी एक सशक्त और जीवन यापन करने योग्य वेतन वाली नौकरी ना दिला सके अर्थात इस मिशन पर खर्च किया गया सरकार का करोड़ों रुपया व्यर्थ ही तो है। सर्वजीत बताते हैं कि जिनके घर बहुत सी समस्याएं हैं और जो लोग अत्यंत गरीब हैं वही लोग इन नौकरियों को करते हैं या फिर यूं कह लें कि वे युवा ऐसी नौकरी करने के लिए मजबूर हैं।
लोग अभी मर रहे हैं ताकि बुढ़ापे में ठीक से मर सकें आईए जानते हैं मैंने ऐसा क्यों कहा -- मैंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि सरकार की जो योजनाएं हैं जैसे कि अटल पेंशन योजना ( APY ), प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना ( PMJJBY ) आदि इन योजनाओं को सुचारू रूप से जारी रखने के लिए बैंक मित्रों ने ग्रामीण और अनपढ़ या कम जागरूक और शिक्षित लोगों के भी खाते में PMJJBY योजना को जब खाता धारक उनके पास पैसे निकलवाने या बैंक संबंधी किसी कार्य के लिए आते हैं तो वह बहाने से खाता धारकों के अंगूठे लगवा कर जारी / लागू कर देते हैं। जब खाता धारकों को यह बात पता लगती है कि उनके खाते से 436 रुपए काट लिए गए हैं, उसके बाद हर साल कटते रहते हैं तब खाताधारक परेशान होते हैं कि आखिर किस चीज के पैसे काटे गए है। जैसे इस योजना में होता यह है कि जो खाताधारक इन योजनाओं को जारी रखते हैं तो यदि वे 50 वर्ष या उससे पहले किसी भी कारण वश मर जाते हैं तो उनके परिवार को ₹2 लाख मिल जाते हैं।
यह योजना मध्य या उच्च वर्ग के लिए अच्छी हो सकती है। लेकिन गरीबों के लिए शायद ही अच्छी हो क्योंकि जब मैंने ग्रामीण इलाकों में कई खाता धारकों से इसके बारे में पूछा तो उन्होंने बताया की अभी तो घर चलाने के लिए पैसे नहीं है इस स्कीम को कैसे चला पाएंगे। रायबरेली जिले के हलोर निवासी एक बैंक मित्र बबलू जो हलोर शाखा के बड़ौदा उत्तर प्रदेश ग्रामीण बैंक के बैंक मित्र हैं। उनसे इस बारे में बात की तो उन्होंने बताया कि मैंने एक बार झिझकते हुए एक पास के व्यापारी का लड़का जो मेरे यहां पैसे निकलवाने आया था उसके खाते में यह स्कीम उसे बिना बताए लागू कर दी थी और जब उसके खाते से पैसे कट गए तो अगले ही दिन मुझे झंझट झेलना पड़ा। वह लड़का मेरे पास आया और फिर उसके कहने पर बैंक शाखा में जाकर उस स्कीम को बंद करवाना पड़ा।
फिर मैंने एक शख्स से बात की जिसे इस स्कीम का लाभ मिला था। शिवगढ़ ब्लॉक के मानपुर ओसाह निवासी शिवबरन बताते हैं कि उनके पिता के खाते में यह स्कीम लागू थी और हर वर्ष 330 रुपए उनके खाते से कट जाते थे क्योंकि पहले ₹330 ही पड़ते थे अब बढ़कर ₹436 कर दिया गया है। उनके पिताजी की बीमारी के कारण 40 वर्ष कुछ महीने की उम्र में मृत्यु हो जाती है तो वह एक दिन अपने पिताजी के खाता संबंधी जानकारी और योजना का लाभ लेने बैंक पहुंचते हैं तो बैंक कर्मचारी उनसे उस योजना के अंतर्गत मांगे गए सारे दस्तावेज जमा कर लिए जाते हैं। शिवबरन इसकी अपडेट लेने के लिए हर सप्ताह बैंक के चक्कर लगाते रहते थे लेकिन बैंक वाले उन्हें टालमटोल करते रहते थे। फिर बैंक कर्मचारियों ने उन्हें क्षेत्रीय जिला मुख्यालय तक जाने के लिए मजबूर कर दिया। फिर भी शिवबरन उस योजना का लाभ नहीं ले पाते हैं। जिस कारण विवश होकर शिवबरन कई महीनो बाद एक क्षेत्रीय मंत्री को अपनी सारी समस्याएं बताते हैं फिर वह मंत्री उस बैंक में शिवबरन के साथ पहुंचते हैं। जब वह बैंक कर्मचारियों से ऊंची आवाज में बात करते हैं तब जाकर कहीं बैंक कर्मचारियों ने उनका काम आगे बढ़ाया और एक महीने बाद उस स्कीम के तहत शिवबरन लाभान्वित होते हैं। लेकिन शिवबरन ने इस स्कीम को अपने खाते में लागू नहीं करवाई है। उनका कहना है कि बैंक कर्मचारी पात्र होने के बावजूद भी खाताधारक को और गरीबों को परेशान करते हैं।
अब बात करते हैं APY की --- इस स्कीम को जो खाता धारक लेते हैं वह अपनी सुविधा अनुसार हर महीने 60 वर्ष की उम्र तक पहले इसमें पैसा जमा करते हैं। 60 वर्ष की उम्र के पश्चात उन्हें हर महीने स्कीम की योजना के तहत जो जितने पैसे जमा कर रखे होते हैं वही पैसे 6-7% ब्याज दर के हिसाब से उन्हें किस्त की तरह मिलते रहते हैं ताकि जब व्यक्ति रिटायर हो जाता है तो वह घर बैठे अपना जीवन यापन कर सके। लेकिन गांव में इसकी स्थिति बहुत ही दयनीय है जिन लोगों ने उस योजना / स्कीम को ले रखा है उनमें से बहुत से लोग उसकी किस्तों को भरने के लिए दिन-रात मेहनत-मजदूरी करते हैं तब जाकर घर के तमाम खर्चों के अलावा उस स्कीम के लिए पैसे जुटा पाते हैं। आज की योजनाएं भी गरीबों पर एक बोझ हो गई हैं। लोगों के पास वर्तमान में जीवन-यापन के लिए पैसे नहीं हैं, खासकर ग्रामीण इलाकों में, तो वे इन स्कीमों को सुचारू रूप से कैसे जारी रख पाएंगे। लेकिन भविष्य में, खासकर बुढ़ापे में मनुष्य शांति से जी सकें इसलिए वे इन स्कीमों को ले लेते हैं और इनकी किस्तें भरने में ही सारा जीवन खपा देते हैं। और बहुत से खाताधारक तो जब उन योजनाओं का लाभ लेने की बारी आती है तो वे जीवित ही नहीं होते हैं और कुछ योजनाएं तो मरने के बाद ही योजना का लाभ देती हैं। कुछ योजनाओं की तो स्कीम ही यही होती है कि मरो और लाभ लो। इसलिए यह कहना गलत ना होगा कि लोग इन स्कीमों को चलाने के लिए जिम्मेदारियां और अतिरिक्त कामों के बोझ तले अभी इसलिए मर रहे हैं ताकि बुढ़ापे में ठीक से मर सकें। बढ़ती बेरोजगारी और बढ़ती जिम्मेदारियों के कारण अब लोगों ने वर्तमान में जीना ही छोड़ दिया है, अब वह सिर्फ भविष्य में जीने की सोच रहे हैं।
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